Thursday, 8 July 2021

कुव्वत उल इस्लाम

दिल्ली की प्रसिद्ध कुतुब मीनार के पास स्थित इस मस्जिद का निर्माण गुलाम वंश के प्रथम शासक कुतुब-उद-दीन ऐबक ने 1192 में शुरु करवाया था। इस मस्जिद को बनने में चार वर्ष का समय लगा। लेकिन बाद के शासकों ने भी इसका विस्तार किया। जैसे इल्तुतमिश 1230 में और फिरोज साह तुगलक ने 1351 में इसमें कुछ और हिस्से जोड़े। यह मस्जिद हिन्दू और इस्लामिक कला का अनूठा संगम है। एक ओर इसकी छत और स्तंभ भारतीय मंदिर शैली की याद दिलाते हैं, वहीं दूसरी ओर इसके बुर्ज इस्लामिक शैली में बने हुए हैं। मस्जिद प्रांगण में सिकंदर लोदी (1488-1517) के शासन काल में मस्जिद के इमाम रहे इमाम जमीम का एक छोटा-सा मकबरा भी है

Tuesday, 6 July 2021

विजय स्तम्भ चित्तौड़गढ़

विजय स्तम्भ राजस्थान के चित्तौड़गढ़ क़िले में स्थित है। इस स्तम्भ को 'कीर्ति स्तम्भ' भी कहा जाता है।

इस स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने 1448 ई. में करवाया था।
महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूदशाह ख़िलजी को युद्ध में प्रथम बार परास्त कर उसकी स्मृति में इष्टदेव विष्णु के निमित्त यह विजय स्तम्भ बनवाया था।

भोपाल जलियांवाला हत्याकांड

भोपाल। आजादी के लिए संघर्ष कर रहे लोगाें को गोलियों से छलनी करने वाले जलियांवाला हत्याकांड की कहानी तो आप सबने सुनी होगी। ठीक वैसा ही एक हत्याकांड भारत के आजाद होने के बाद भोपाल के पास नर्मदा तट पर हुआ था, जब तिरंगा फहराने जा रहे छह युवकों को नवाब ने अपनी पुलिस से गोलियों से भुनवा दिया था। क्यों हुआ था ये हत्याकांड?...
दरअसल, 15 अगस्त 1947 को भारत तो आजाद हो गया था, लेकिन भोपाल रियासत उस समय भारत में शामिल नहीं हुई थी। यहां के लोग रियासत का भारत में विलय के लिए आंदोलन कर रहे थे, उसी से नाराज होकर नवाब ने यह कार्रवाई की थी। 1 जून 1949 को भोपाल भारत में शामिल हुआ था
यहां हुआ था हत्याकांड

भोपाल के पास रायसेन जिले में नर्मदा तट पर बोरास गांव है। भोपाल में विलीनीकरण आंदोलन चल रहा था। जगह-जगह शांतिपूर्वक आंदोलन के जरिये भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहराया जा रहा था। बोरास में भी यही किया जाना था। 14 जनवरी 1949 को बोरास में मकर सक्रांति का मेला भरा था। इस मेले में तिरंगा फहराने का निर्णय लिया गया। छह युवक तिरंगा फहराने के लिए आए। पुलिस ने पहले उन्हें मना किया, लेकिन वे नहीं माने। पुलिस ने इसकी जानकारी भोपाल पुलिस के डीआईजी और भोपाल के प्रधानमंत्री को दी। इसके कुछ ही देर बाद तिरंगा फहराने जा रहे छह युवकों को एक-एक करके गोली से भून दिया गया। मेले में भगदड़ मच गई और तिरंगा फहराने जा रहे युवक शहीद हो गए।


गोली लगने के बाद भी तिरंगा नहीं गिरने दिया
बताया जाता है कि गोली लगने के बाद भी शहीदों ने तिरंगे को जमीन पर नहीं गिरने दिया। उस समय प्रकाशित होने वाले अखबार नई राह के मुताबिक 16 वर्षीय धनसिंह जब वंदेमातरम गाते हुए तिरंगा फहराने जा रहा था, तो तत्कालीन थानेदार जाफर ने उसे गीत गाने से मना किया। धनसिंह नहीं माने और तिरंगा फहराने के लिए आगे बढ़े, तो उन्हें गोली मार दी गई। धनसिंह के जमीन पर गिरने से पहले मंगलसिंह नामक किसान ने झंडा थाम लिया। मंगलसिंह को गोली मारी गई, ताे युवक विशाल ने झंडा थाम लिया। विशाल को भी गोली मार दी गई। तिंरगा झंडा तीनों लोगों के खून से लथपथ हो चुका था। विशाल जमीन पर गिरता, इससे पहले उसने डंडे में से झंडा निकालकर अपनी जेब में रख लिया। इसके अलावा तीन और लोगों को भी गोली मारी गई।

नवाबकाल की उल्टी गिनती शुरू
इस घटना के बाद देशभर में भोपाल नवाब के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुआ। भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने मामले में हस्तक्षेप करते हुए अपने सचिव वीपी मेनन को तत्काल भोपाल भेजा और नवाब पर दबाव डाला कि वे अपने प्रधानमंत्री का तुरंत इस्तीफा लें। इस घटना का व्यापक असर हुआ। घटना के बाद स्वतंत्र देश का सपना देख रहे भोपाल नवाब हमीदुल्ला खां की सत्ता पर से पकड़ ढीली होती गई और अंतत: उन्होंने भोपाल का भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। 1 जून 1949 को भोपाल भारत देश का अंग बना।

Monday, 5 July 2021

हर्षवर्धन

हर्षवर्धन (590-647 ई.) प्राचीन भारत में एक राजा था जिसने उत्तरी भारत में ६०६ ई से ६४७ ई तक राज किया। वह वर्धन राजवंश के शासक प्रभाकरवर्धन का पुत्र था। जिसके पिता अल्कोन हूणों को पराजित जिया था।[2] उसका छोटा भाई राज्यवर्धनथानेसर पर शासन करता था जिसका क्षेत्र आज के हरियाणा का क्षेत्र है। हर्षवर्धन बैस क्षत्रिय वंश के थे।[3]

हर्षवर्धन
महाराजधिराज
Harshavardhana Circa AD 606-647.jpg
हर्षवर्द्धन के समय का सिक्का, अनुमानतः ६०६ - ६४७ ई.स.
हर्ष का साम्राज्य Anugrh Khalkho
शासनावधिल. 606 CE-647 CE[1]
पूर्ववर्तीराज्यवर्द्धन
उत्तरवर्तीयशोवर्मन
जन्म590 ई.स.
निधन647 ई.स.
राजवंशवर्द्धन (पुष्यभूति)
पिताप्रभाकरवर्द्धन
मातायशोमती
धर्महिन्दूबौद्ध
हर्षवर्धन का साम्राज्य
हर्ष का टीला

जब हर्ष का शासन अपने चरमोत्कर्ष पर था तब उत्तरी और उत्तरी-पश्चिमी भारत का अधिकांश भाग उसके राज्य के अन्तर्गत आता था। उसका राज्य पूरब में कामरूप तक तथा दक्षिण में नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। कन्नौज उसकी राजधानी थी जो आजकल उत्तर प्रदेश में है। उसने ६४७ ई तक शासन किया।[4] जब हर्ष ने भारत के दक्षिणी भाग में अपने राज्य का विस्तार करने की कोशिश की तो चालुक्य वंश के शासक पुलकेशिन द्वितीय ने नर्मदा के युद्ध में उसे पराजित किया।

वह अंतिम बौद्ध सम्राट् था जिसने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया। शशांक की मृत्यु के उपरांत वह बंगाल को भी जीतने में समर्थ हुआ। हर्षवर्धन के शासनकाल का इतिहास मगध से प्राप्त दो ताम्रपत्रों, राजतरंगिणी, चीनी यात्री युवान् च्वांग के विवरण और हर्ष एवं बाणभट्ट रचित संस्कृत काव्य ग्रंथों में प्राप्त है।

उसके पिता का नाम 'प्रभाकरवर्धन' था। राजवर्धन उसका बड़ा भाई और राज्यश्री उसकी बड़ी बहन थी। ६०५ ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् राजवर्धन राजा हुआ पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शंशांक की दुरभिसंधि वश मारा गया। हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा। हर्षवर्धन ने बहन राज्यश्री का विंध्याटवी से उद्धार किया, थानेश्वर और कन्नौज राज्यों का एकीकरण किया। देवगुप्त से मालवा छीन लिया। शंशाक को गौड़ भगा दिया। दक्षिण पर अभियान किया। ऐहोल अभिलेख के अनुसार उसे आंध्र के राजा पुलकैशिन द्वितीय ने हराया।[कृपया उद्धरण जोड़ें]

उसने साम्राज्य को अच्छा शासन दिया। धर्मों के विषय में उदार नीति बरती। विदेशी यात्रियों का सम्मान किया। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है। प्रति पाँचवें वर्ष वह सर्वस्व दान करता था। इसके लिए बहुत बड़ा धार्मिक समारोह करता था। कन्नौज और प्रयाग के समारोहों में ह्वेनसांग उपस्थित था। हर्ष साहित्य और कला का पोषक था। कादंबरीकार बाणभट्ट उसका अनन्य मित्र था। हर्ष स्वयं पंडित था। वह वीणा बजाता था। उसकी लिखी तीन नाटिकाएँ नागानन्दरत्नावली और प्रियदर्शिका संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधियाँ हैं। हर्षवर्धन का हस्ताक्षर मिला है जिससे उसका कलाप्रेम प्रगट होता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]

गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत में (मुख्यतः उत्तरी भाग में) अराजकता की स्थिति बना हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनैतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी हर्षचरित में उसे चतुःसमुद्राधिपति एवं सर्वचक्रवर्तिनाम धीरयेः आदि उपाधियों से अलंकृत किया। हर्ष कवि और नाटककार भी था। उसके लिखे गए दो नाटक प्रियदर्शिका और रत्नावली प्राप्त होते हैं।

हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था। थानेसर, प्राचीन हिन्दुओं के तीर्थ केन्द्रों में से एक है तथा ५१ शक्तिपीठों में एक है। यह अब एक छोटा नगर है जो दिल्ली के उत्तर में हरियाणा राज्य में बने नये कुरुक्षेत्र के आस-पडोस में स्थित है। हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संर्दभ में एक शिलालेख प्राप्त हुई है जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजी गयी है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी पुस्तक में इनके शासन काल के बारे में लिखा है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]

शासन प्रबन्धसंपादित करें

हर्ष स्वयं प्रशासनिक व्यवस्था में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेता था। सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् गठित की गई थी। बाणभट्ट के अनुसार 'अवन्ति' युद्ध और शान्ति का सर्वोच्च मंत्री था। 'सिंहनाद' हर्ष का महासेनापति था। बाणभट्ट ने हर्षचरित में इन पदों की व्याख्या इस प्रकार की है-

अवन्ति - युद्ध और शान्ति का मंत्री
सिंहनाद - हर्ष की सेना का महासेनापति
कुन्तल - अश्वसेना का मुख्य अधिकारी
स्कन्दगुप्त - हस्तिसेना का मुख्य अधिकारी
भंंडी- प्रधान सचिव
लोकपाल- प्रान्तीय शासक

इतिहाससंपादित करें

  1. हर्षवर्धन भारत के आखिरी महान राजाओं में एक थे। चौथी शताब्दी से लेकर 6 वीं शताब्दी तक मगध पर से भारत पर राज करने वाले गुप्त वंश का जब अन्त हुआ, तब देश के क्षितिज पर सम्राट हर्ष का उदय हुआ। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाकर पूरे उत्तर भारत को एक सूत्र में बांधने में सफलता हासिल की।
  2. 16 वर्ष की छोटी उम्र में बने राजा। बड़े भाई राज्यवर्धन की हत्या के बाद हर्षवर्धन को राजपाट सौंप दिया गया। खेलने-कूदने की उम्र में हर्षवर्धन को राजा शशांक के खिलाफ युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा। शशांक ने ही राज्यवर्धन की हत्या की थी।
  3. उत्तर भारत के विशाल हिस्से पर किया राज। हर्षवर्धन ने एक विशाल सेना तैयार की और करीब 6 साल में वल्लभी (गुजरात), पंजाब,गंजाम (उड़ीसा) बंगाल, मिथिला (बिहार) और कन्नौज (उत्तर प्रदेश) जीत कर पूरे उत्तर भारत पर अपना दबदबा कायम कर लिया। जल्दी ही हर्षवर्धन का साम्राज्य गुजरात (पश्चिम) से लेकर आसाम (पूर्व) तक और कश्मीर (उत्तर) से लेकर नर्मदा नदी (दक्षिण) तक फैल गया।
  4. तैयार की विशाल सेना।माना जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन की सेना में 1 लाख से अधिक सैनिक थे। यही नहीं, सेना में 60 हजार से अधिक हाथियों को रखा गया था।
  5. हर्ष परोपकारी सम्राट थे। सम्राट हर्षवर्धन ने भले ही अलग-अलग राज्यों को जीत लिया, लेकिन उन राज्यों के राजाओं को अपना शासन चलाने की इजाज़त दी। शर्त एक थी कि वे हर्ष को अपना सम्राट मानेंगे। हालांकि इस तरह की संधि कन्नौज और थानेश्वर के राजाओं के साथ नहीं की गई थी।
  6. चीन के साथ बेहतर संबंध। 21वीं सदी में, जहां भारत और चीन जैसे उभरते हुए देशों के बीच राजनितिक सम्बन्ध बिगड़ते नज़र आ रहे हैं, वहीं 7वीं सदी में हर्ष ने कला और संस्कृति के बलबूते पर, दोनों देशों के बीच बेहतर संबंध बनाकर रखे थे। इतिहास के मुताबिक, चीन के मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग हर्ष के राज-दरबार में 8 साल तक उनके दोस्त की तरह रहे थे।
  7. हर्ष ने ‘सती’ प्रथा पर लगाया प्रतिबंध। हर्षवर्धन ने सामाजिक कुरीतियों को जड़ से खत्म करने का बीड़ा उठाया था। उनके राज में सती प्रथा पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। कहा जाता है कि सम्राट हर्षवर्धन ने अपनी बहन को भी सती होने से बचाया था।
  8. सभी धर्मों का समान आदर और महत्व। पारम्परिक हिन्दू परिवार में जन्म लेने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया | सम्राट हर्ष, सभी धर्मों को समान आदर और महत्व देते थे। बौद्ध धर्म हो या जैन धर्म, हर्ष किसी भी धर्म में भेद-भाव नहीं करते थे। चीनी दूत ह्वेन त्सांग ने अपनी किताबों में भी हर्ष को महाया बौद्ध धर्म के प्रचारक तरह बताया है।
  9. शिक्षा को महत्व। सम्राट हर्षवर्धन ने शिक्षा को देश भर में फैलाया। हर्षवर्धन के शासनकाल में नालंदा विश्वविद्यालय एक शिक्षा के सर्वश्रेष्ठ केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
  10. हर्ष एक बहुत अच्छे लेखक ही नहीं, बल्कि एक कुशल कवि और नाटककार भी थे। हर्ष की ही देख-रेख में ‘बाणभट्ट’ और ‘मयूरभट्ट’ जैसे मशहूर कवियों का जन्म हुआ था। यही नहीं, हर्ष खुद भी एक बहुत ही मंजे हुए नाटककार के रूप में सामने आए। ‘नागनन्दा’, ‘रत्नावली’ और ‘प्रियदर्शिका’ उनके द्वारा लिखे गए कुछ नामचीन नाटक हैं।
  11. प्रयाग का मशहूर ‘कुम्भ मेला’ भी हर्ष ने ही शुरु करवाया था। प्रयाग (इलाहबाद) में हर साल होने वाला ‘कुम्भ मेला’, जो सदियों से चला आ रहा है और हिन्दू धर्म के प्रचारकों के बीच काफी प्रसिद्ध है; माना जाता है कि वो भी राजा हर्ष ने ही शुरु करवाया था।
  12. भारत की अर्थव्यवस्था ने हर्ष के शासनकाल में बहुत तरक्की की थी। भारत, जो मुख्य तौर पर एक कृषि-प्रधान देश माना जाता है; हर्ष के कुशल शासन में तरक्की की उचाईयों को छू रहा था। हर्ष के शासनकाल में भारत ने आर्थिक रूप से बहुत प्रगति की थी।
  13. हर्ष के बाद उनके राज्य को संभालने के लिए उनका कोई भी वारिस नहीं था। हर्षवर्धन के अपनी पत्नी दुर्गावती से 2 पुत्र थे- वाग्यवर्धन और कल्याणवर्धन। पर उनके दोनों बेटों की अरुणाश्वा नामक मंत्री ने हत्या कर दी। इस वजह से हर्ष का कोई वारिस नहीं बचा।
  14. हर्ष के मरने के बाद उनका साम्राज्य भी पूरी तरह से समाप्त हो गया था। 647 A.D. में हर्ष के मरने के बाद, उनका साम्राज्य भी धीरे-धीरे बिखरता चला गया और फिर समाप्त हो गया। उनके बाद जिस राजा ने कन्नौज की बागडोर संभाली थी, वह बंगाल के राजा के विरुद्ध जंग में हार गया। वारिस न होने की वजह से, सम्राट हर्षवर्धन का साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।
  15. सम्राट हर्षवर्धन एक बड़ा गंभीर, कूटनीतिज्ञ,बुद्धिमान एवं अखण्ड भारत की एकता को साकार करने के स्वप्न को संजोने वाला राजनीतिज्ञ था। इसका विश्लेषण बड़े पुष्ट प्रमाणों के साथ इतिहासकार विजय नाहर के ग्रन्थ शीलादित्य सम्राट हर्षवर्धन एवं उनका युग में उपलब्ध होता है। जैसे शशांक से संधि, पुलकेशिन द्वितीय से संधि एवं वल्लभी नरेश ध्रुव भट्ट के साथ संधि करना उसकी दूरदर्शिता पूर्ण राजनीतिज्ञता तथा सफल कूटनीतिज्ञता की प्रतिभा को उजागर करता है। हर्ष ने किसी भी प्रश्न को अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा एवं महत्वाकांक्षा का प्रश्न नही बनाया बल्कि राष्ट्रिय सुरक्षा एवं संपूर्ण उत्तर भारत की सुदृढ़ संगठित शक्ति का दृष्टिकोण अपनी आँखों के समक्ष हमेशा रखा।

Friday, 2 July 2021

रेफ्लीसिया विश्व का सबसे बड़ा पुष्प

रेफ्लीसिया मुख्यतः मलेशिया एंव इंडोनेशिया में पाया जाने वाला, एक आश्चर्यजनक परजीवी पौधा है, जिसका फूल वनस्पति जगत के सभी पौंधों के फूलों से बड़ा लगभग १ मीटर व्यास का होता और इसका वजन १० किलोग्राम तक हो सकता है। इसकी सबसे छोटी प्रजाति २० सेमी व्यास की पाई गई है। सभी प्रजातियों में फूल की त्वचा छूने में मांस की तरह प्रतीत होती है और इसके फूल से सड़े मांस की बदबू आती है जिससे कुछ विशेष कीट पतंग इसकी ओर आकृष्ट होते हैं।


रेफ्लीसिया
इस की खोज सबसे पहले इंडोनेशिया के वर्षा वनों में हुई थी, जब सर्वप्रथम डाक्टर जोसेफ अर्नाल्ड के एक स्थानीय गाइड ने इसे देखा। इसका नामकरण उसी खोजी दल के नेता सर थॉमस स्टैमफोर्ड रेफ्लस के नाम पर हुआ। अब तक इसकी २६ प्रजातियां खोजी जा चुकी है। जिनमें से ४ का नामकरण स्पष्ट रूप से नहीं हुआ है। इंडोनेशिया और मलेशिया के अतिरिक्त यह पौधा सुमात्रा और फ़िलीपीन्स में भी पाया जाता है। इसका जन्म किसी संक्रमित पेड़ की जड़ से होता है। पहले एक गाँठ सी बनती है और जब यह बड़ी होकर एक बंदगोभी के आकार की हो जाती है तब चार दिनों के अंदर इसकी पंखुड़ियाँ खुल जाती हैं और पूरा फूल आकार ले लेता है। इस पौधे में केवल फूल ही एक ऐसा भाग है जो जमीन के ऊपर रहता है शेष सब भाग कवक जाल की भांति पतले-पतले होते हैं और जमीन के अन्दर ही धागों के रूप में फैले रहते हैं। यह दूसरे पौधे की जड़ों से भोजन चूसते हैं।

कुरिंजी या नीलकुरिंजी पुष्प

नीलकुरिंजी या कुरिंजी (Strobilanthes kunthiana) दक्षिण भारत के पश्चिम घाट के १८०० मीटर से ऊंचे शोला घास के मैदानों में बहुतायत से उगने वाला एक पौधा होता है। नीलगिरी पर्वत को अपना नाम इन्हीं नीले कुरंजी के पुष्पों से आच्छादित होने के कारण नाम मिला। यह पौधा १२ वर्षों में एक बार ही फूल देता है। इस से ही पालियन लोग इस पौधे की आयु का अनुमान लगाते हैं।[1]

होशंगशाह

होशंग शाह (अल्प खाँ उर्दु:الپ خان) (१४०६-३५) मालवा क्षेत्र का औपचारिक रूप से नियुक्त प्रथम इस्लामिक राजा था।[1][2] इसे हुशंग शाह ग़ोरी के नाम से भी प्रसिद्ध इस राजा का मालवा का राजा घोषित होने से पूर्व अल्प खाँ नाम प्रचलित था। अल्प खाँ के पिता दिलावर खाँ दिल्ली के सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुगलक के दरबार से संबद्ध रहा था। दिलावर खाँ को तुगलकों में से एक, फ़िरुज़ द्वारा मालवा का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। १४०१ में उसने स्वयं को दिल्ली सल्तनत से मुक्त स्वायत्त राजा घोषित कर लिया था। अतः वह माण्डू में १४०१ में मालवा के प्रथम राजा के रूप में आया था। किन्तु उसने स्वयं को वहां का राजा घोषित नहीं किया था।

माण्डू में होशंग शाह का मकबरा

होशंगशाह के मकबरे को मध्य प्रदेश का ताजमहल भी कहा जाता है