Sunday, 24 October 2021

करवा चौथ एक उत्तर भारतीय त्यौहार

करवा चौथ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मनाया जाने वाला पर्व है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। यह पर्व सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ मनाती हैं। यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब 4 बजे के बाद शुरू होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है।

करवा चौथ
करवा चौथआधिकारिक नामकरवा चौथअन्य नामकरक चतुर्थीअनुयायीहिन्दू, भारतीय, भारतीय प्रवासीप्रकारHinduउद्देश्यसौभाग्यतिथिकार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थीसमान पर्वहोई अष्टमी, तीज

ग्रामीण स्त्रियों से लेकर आधुनिक महिलाओं तक सभी नारियाँ करवाचौथ का व्रत बडी़ श्रद्धा एवं उत्साह के साथ रखती हैं। यह व्रत कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करना चाहिए। पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है। करवाचौथ में भी संकष्टीगणेश चतुर्थी की तरह दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अ‌र्घ्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है। वर्तमान समय में करवाचौथ व्रतोत्सव ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं लेकिन अधिकतर स्त्रियां निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं।

यह व्रत 12 वर्ष तक अथवा 16 वर्ष तक लगातार हर वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन (उपसंहार) किया जाता है। जो सुहागिन स्त्रियाँ आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं। इस व्रत के समान सौभाग्यदायक व्रत अन्य कोई दूसरा नहीं है। अतः सुहागिन स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षार्थ इस व्रत का सतत पालन करें।

भारत देश में वैसे तो चौथ माता जी के कही मंदिर स्थित है, लेकिन सबसे प्राचीन एवं सबसे अधिक ख्याति प्राप्त मंदिर राजस्थान राज्य के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा गाँव में स्थित है। चौथ माता के नाम पर इस गाँव का नाम बरवाड़ा से चौथ का बरवाड़ा पड़ गया। चौथ माता मंदिर की स्थापना महाराजा भीमसिंह चौहान ने की थी।

व्रत की विधि
उपवास सहित एक समूह में बैठ महिलाएं चौथ पूजा के दौरान, गीत गाते हुए थालियों की फेरी करती हुई

चौथ पूजा के उपरांत महिलाएं समूह मे सूर्य को जल का अर्क देती हुई

कार्तिक कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी अर्थात उस चतुर्थी की रात्रि को जिसमें चंद्रमा दिखाई देने वाला है, उस दिन प्रातः स्नान करके अपने सुहाग (पति) की आयु, आरोग्य, सौभाग्य का संकल्प लेकर दिनभर निराहार रहें। जानिए कैसे हुई इसकी शुरुआत। कैसे करें पूजन और व्रत की पूरी विधि 
संत गरीबदास जी कहते है:
कहे जो करवा चौथ कहानी, तास गदहरी निश्चय जानी, करे एकादशी संजम सोई, करवा चौथ गदहरी होई।।[2]
पूजन
उस दिन भगवान शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा का पूजन करें। पूजन करने के लिए बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी बनाकर उपरोक्त वर्णित सभी देवों को स्थापित करें।

नैवेद्य
शुद्ध घी में आटे को सेंककर उसमें शक्कर अथवा खांड मिलाकर मोदक (लड्डू) नैवेद्य हेतु बनाएँ।

करवा
काली मिट्टी में शक्कर की चासनी मिलाकर उस मिट्टी से तैयार किए गए मिट्टी के करवे अथवा तांबे के बने हुए करवे।

संख्‍या
10 अथवा 13 करवे अपनी सामर्थ्य अनुसार रखें।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं।

पूजन विधि
चौथ पूजा के दौरान एक समूह में बैठ सुहागिने, गीत गाते हुए थालियों की फेरी करती हुई

बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी पर शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा की स्थापना करें। मूर्ति के अभाव में सुपारी पर नाड़ा बाँधकर देवता की भावना करके स्थापित करें। पश्चात यथाशक्ति देवों का पूजन करें।

पूजन हेतु निम्न मंत्र बोलें-
'ॐ शिवायै नमः' से पार्वती का, 'ॐ नमः शिवाय' से शिव का, 'ॐ षण्मुखाय नमः' से स्वामी कार्तिकेय का, 'ॐ गणेशाय नमः' से गणेश का तथा 'ॐ सोमाय नमः' से चंद्रमा का पूजन करें।

करवों में लड्डू का नैवेद्य रखकर नैवेद्य अर्पित करें। एक लोटा, एक वस्त्र व एक विशेष करवा दक्षिणा के रूप में अर्पित कर पूजन समापन करें। करवा चौथ व्रत की कथा पढ़ें अथवा सुनें।

सायंकाल चंद्रमा के उदित हो जाने पर चंद्रमा का पूजन कर अर्घ्य प्रदान करें। इसके पश्चात ब्राह्मण, सुहागिन स्त्रियों व पति के माता-पिता को भोजन कराएँ। भोजन के पश्चात ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दें।

पति की माता (अर्थात अपनी सासूजी) को उपरोक्त रूप से अर्पित एक लोटा, वस्त्र व विशेष करवा भेंट कर आशीर्वाद लें। यदि वे जीवित न हों तो उनके तुल्य किसी अन्य स्त्री को भेंट करें। इसके पश्चात स्वयं व परिवार के अन्य सदस्य भोजन करें।

कथा
प्रथम कथा
बहुत समय पहले की बात है, एक साहूकार के सात बेटे और उनकी एक बहन करवा थी। सभी सातों भाई अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि वे पहले उसे खाना खिलाते और बाद में स्वयं खाते थे। एक बार उनकी बहन ससुराल से मायके आई हुई थी। शाम को भाई जब अपना व्यापार-व्यवसाय बंद कर घर आए तो देखा उनकी बहन बहुत व्याकुल थी। सभी भाई खाना खाने बैठे और अपनी बहन से भी खाने का आग्रह करने लगे, लेकिन बहन ने बताया कि उसका आज करवा चौथ का निर्जल व्रत है और वह खाना सिर्फ चंद्रमा को देखकर उसे अर्घ्‍य देकर ही खा सकती है। चूँकि चंद्रमा अभी तक नहीं निकला है, इसलिए वह भूख-प्यास से व्याकुल हो उठी है। सबसे छोटे भाई को अपनी बहन की हालत देखी नहीं जाती और वह दूर पीपल के पेड़ पर एक दीपक जलाकर चलनी की ओट में रख देता है। दूर से देखने पर वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे चतुर्थी का चाँद उदित हो रहा हो। इसके बाद भाई अपनी बहन को बताता है कि चाँद निकल आया है, तुम उसे अर्घ्य देने के बाद भोजन कर सकती हो। बहन खुशी के मारे सीढ़ियों पर चढ़कर चाँद को देखती है, उसे अर्घ्‍य देकर खाना खाने बैठ जाती है।

वह पहला टुकड़ा मुँह में डालती है तो उसे छींक आ जाती है। दूसरा टुकड़ा डालती है तो उसमें बाल निकल आता है और जैसे ही तीसरा टुकड़ा मुँह में डालने की कोशिश करती है तो उसके पति की मृत्यु का समाचार उसे मिलता है। वह बौखला जाती है। उसकी भाभी उसे सच्चाई से अवगत कराती है कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ। करवा चौथ का व्रत गलत तरीके से टूटने के कारण देवता उससे नाराज हो गए हैं और उन्होंने ऐसा किया है। सच्चाई जानने के बाद करवा निश्चय करती है कि वह अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने देगी और अपने सतीत्व से उन्हें पुनर्जीवन दिलाकर रहेगी। वह पूरे एक साल तक अपने पति के शव के पास बैठी रहती है। उसकी देखभाल करती है। उसके ऊपर उगने वाली सूईनुमा घास को वह एकत्रित करती जाती है। एक साल बाद फिर करवा चौथ का दिन आता है। उसकी सभी भाभियाँ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। जब भाभियाँ उससे आशीर्वाद लेने आती हैं तो वह प्रत्येक भाभी से 'यम सूई ले लो, पिय सूई दे दो, मुझे भी अपनी जैसी सुहागिन बना दो' ऐसा आग्रह करती है, लेकिन हर बार भाभी उसे अगली भाभी से आग्रह करने का कह चली जाती है।

इस प्रकार जब छठे नंबर की भाभी आती है तो करवा उससे भी यही बात दोहराती है। यह भाभी उसे बताती है कि चूँकि सबसे छोटे भाई की वजह से उसका व्रत टूटा था अतः उसकी पत्नी में ही शक्ति है कि वह तुम्हारे पति को दोबारा जीवित कर सकती है, इसलिए जब वह आए तो तुम उसे पकड़ लेना और जब तक वह तुम्हारे पति को जिंदा न कर दे, उसे नहीं छोड़ना। ऐसा कह के वह चली जाती है। सबसे अंत में छोटी भाभी आती है। करवा उनसे भी सुहागिन बनने का आग्रह करती है, लेकिन वह टालमटोली करने लगती है। इसे देख करवा उन्हें जोर से पकड़ लेती है और अपने सुहाग को जिंदा करने के लिए कहती है। भाभी उससे छुड़ाने के लिए नोचती है, खसोटती है, लेकिन करवा नहीं छोड़ती है।

अंत में उसकी तपस्या को देख भाभी पसीज जाती है और अपनी छोटी अँगुली को चीरकर उसमें से अमृत उसके पति के मुँह में डाल देती है। करवा का पति तुरंत श्रीगणेश-श्रीगणेश कहता हुआ उठ बैठता है। इस प्रकार प्रभु कृपा से उसकी छोटी भाभी के माध्यम से करवा को अपना सुहाग वापस मिल जाता है। हे श्री गणेश माँ गौरी जिस प्रकार करवा को चिर सुहागन का वरदान आपसे मिला है, वैसा ही सब सुहागिनों को मिले।
द्वितीय कथा
इस कथा का सार यह है कि शाकप्रस्थपुर वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरवती ने करवा चौथ का व्रत किया था। नियमानुसार उसे चंद्रोदय के बाद भोजन करना था, परंतु उससे भूख नहीं सही गई और वह व्याकुल हो उठी। उसके भाइयों से अपनी बहन की व्याकुलता देखी नहीं गई और उन्होंने पीपल की आड़ में आतिशबाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करा दिया।
परिणाम यह हुआ कि उसका पति तत्काल अदृश्य हो गया। अधीर वीरवती ने बारह महीने तक प्रत्येक चतुर्थी को व्रत रखा और करवा चौथ के दिन उसकी तपस्या से उसका पति पुनः प्राप्त हो गया।
तृतीय कथा
एक समय की बात है कि एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे के गाँव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। स्नान करते समय वहाँ एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह मनुष्य करवा-करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा।
उसकी आवाज सुनकर उसकी पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को कच्चे धागे से बाँध दिया। मगर को बाँधकर यमराज के यहाँ पहुँची और यमराज से कहने लगी- हे भगवन! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगर को पैर पकड़ने के अपराध में आप अपने बल से नरक में ले जाओ।
यमराज बोले- अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे नहीं मार सकता। इस पर करवा बोली, अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूँगी। सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।
चौथी कथा
एक बार पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रोपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। कृष्ण भगवान ने कहा- बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था।

पूजन कर चंद्रमा को अर्घ्‍य देकर फिर भोजन ग्रहण किया जाता है। सोने, चाँदी या मिट्टी के करवे का आपस में आदान-प्रदान किया जाता है, जो आपसी प्रेम-भाव को बढ़ाता है। पूजन करने के बाद महिलाएँ अपने सास-ससुर एवं बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेती हैं।

तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लड़के एवं एक गुणवती लड़की थी।

एक बार लड़की मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी।

भाइयों से न रहा गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी- देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया।

भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। अब वह दुःखी हो विलाप करने लगी, तभी वहाँ से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दुःख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दुःख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला।

अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुनः सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से हिन्दू महिलाएँ अपने अखंड सुहाग के लिए करवा चौथ व्रत करती हैं।

Saturday, 23 October 2021

DAP (डी ए पी) कृषि के लिए क्यों जरूरी है विगत 5 से 7 सालों में जो 400से 500 था आज 2000 से 2500 हजार हो गया मोदिया का कमाल(आदेश राजपूत)

डीएपी उर्वरक (DAP Fertilizer) : कृषि मे रासायनिक उर्वरकों का विशेष महत्व है। यह रासायनिक उर्वरक फसलों को तरह-तरह के पोषक तत्वों की पूर्ति करते हैं तथा एक सफल फसलोत्पादन मे महत्वपूर्ण योगदान देते है। इन्हीं रासायनिक उर्वरकों में एक महत्वपूर्ण रासायनिक उर्वरक है डीएपी उर्वरक (dap fertilizer)। आखिर क्या है डीएपी उर्वरक ?, कृषि मे क्या है इसका महत्व एवं उपयोग इसी से सम्बंधित है हमारा आज का यह आर्टिकल। तो चलिए विस्तार से डीएपी उर्वरक के बारे मे।

डीएपी उर्वरक क्या है ? | what is DAP fertilizer in hindi :

डीएपी (DAP) जिसका पूरा नाम डाई अमोनियम फास्फेट है एक प्रकार का क्षारीय प्रकृति का रासायनिक उर्वरक है। यह भारत सहित विश्व की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण फास्फेटिक उर्वरको मे से एक है। इसका उपयोग हमारे देश में व्यापक पैमाने पर किया जाता है। 1960 के दशक से खोजी गई यह रासायनिक उर्वरक हरित क्रांति के बाद देखते ही देखते देश की सबसे महत्वपूर्ण फास्फेटिक उर्वरको मे से एक बन गई।

पौधों के लिए महत्वपूर्ण 46% फास्फोरस के साथ 18% नाइट्रोजन उपलब्ध कराता है डीएपी उर्वरक :

पौधों के पोषण के लिए डीएपी उर्वरक (dap fertilizer) नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की प्राप्ति हेतु एक उत्कृष्ट स्त्रोत है। जिसमें 18% नाइट्रोजन सहित 46% फास्फोरस पाया जाता है। डीएपी उर्वरक (dap fertilizer) मे पाया जाने वाला इन पोषक तत्वों मे 39.5% घुलनशील फास्फोरस एवं 15.5% अमोनियम नाइट्रेट के साथ 50 किग्रा बोरों के साथ बाजार मे बिक्री हेतु उपलब्ध होता है।

कृषि मे डीएपी उर्वरक का उपयोग | dap fertilizer uses in plants in hindi :

पौधों की सम्पूर्ण जीवन काल मे कुल 16 पोषण तत्वों की आवश्यकता होती है जिसमें नाइट्रोजन एवं फास्फोरस एक महत्वपूर्ण एवं प्रारंभिक पोषण तत्व माना जाता है। डीएपी उर्वरक (dap fertilizer) इन पोषण तत्वों की पूर्ति हेतु एक उत्कृष्ट स्त्रोत है। जो मृदा के सम्पर्क में आने पर पानी की उपस्थिति में आसानी से घुल कर पौधों के लिए नाइट्रोजन एवं फास्फोरस की पूर्ति करता है। डीएपी मे पाया जाने वाला नाइट्रोजन अमोनिया के रूप में उपलब्ध होता है जो मृदा मे मौजूद बैक्टीरिया के द्वारा आसानी से नाइट्रेट के रुप में परिवर्तन हो कर पौधों को प्राप्त होते रहते हैं। इसके अतिरिक्त इसमे पाया जाने वाला फास्फोरस भी मृदा के सम्पर्क में आने पर आसानी से घुलकर पौधों की जडों के विकास कराने में काफी योगदान देते है इसके अतिरिक्त यह पौधों के कोशिकाओं के विभाजन, न्यूक्लिक अम्ल व फास्फोलिपिड्स के निर्माण के भी योगदान देते हैं।

Thursday, 14 October 2021

मुगलकालीन चित्रकला (Mughal Painting)


भारतीय विरासत और संस्कृति

मुगलकालीन चित्रकला

सामान्य अध्ययन-I

भूमिका:

भारत में मुगल चित्रकला 16वीं और 18वीं शताब्दी के बीच की अवधि का काल है।  यह वह समय था जब मुगलों ने भारत के बड़े हिस्से पर शासन किया था। मुगल चित्रकला का विकास सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में हुआ। मुगल चित्रकला का रूप फारसी और भारतीय शैली का मिश्रण के साथ ही विभिन्न सांस्कृतिक पहलुओं का संयोजन भी है।

मुगल चित्रकला का इतिहास: 

भारत की मुगल चित्रकला हुमायूँ के शासनकाल के दौरान विकसित हुई। जब  वह अपने निर्वासन से भारत लौटा तो वह अपने साथ दो फारसी महान कलाकारों अब्दुल समद और मीर सैयद को लाया। इन दोनों कलाकारों ने स्थानीय कला कार्यों में अपनी स्थिति दर्ज कराई और धीरे-धीरे मुगल चित्रकला का विकास हुआ।

कला की मुगल शैली का सबसे पूर्व उदाहरण ‘तूतीनामा पेंटिंग’ है। ‘टेल्स ऑफ-ए-पैरट जो वर्तमान में कला के क्लीवलैंड संग्रहालय में है। एक और मुगल पेंटिंग है, जिसे ‘प्रिंसेज़ ऑफ द हाउस ऑफ तैमूर’ कहा जाता है। यह शुरुआत की मुगल चित्रकलाओं में से एक है जिसे कई बार फिर से बनाया गया।

मुगल चित्रकला के विषय:

मुगल चित्रकला में एक महान विविधता है, जिसमें चित्र, दृश्य और अदालत जीवन की घटनाएँ शामिल हैं, साथ ही अंतरंग स्थानों में प्रेमियों को चित्रित करने वाले चित्र आदि होते हैं।

मुगल चित्रकलाएँ अक्सर लड़ाई, पौराणिक कहानियों, शिफा के दृश्य वन्यजीव, शाही जीवन जैसे विषयों के आसपास घूमती हैं।

पौराणिक कथाओं आदि मुगल बादशाहों की लंबी कहानियों को बयान करने के लिए भी ये चित्रकला एक महत्त्वपूर्ण माध्यम बन गई हैं।

 मुगल चित्रकला का विकास:

बाबर के काल में मुगल चित्रकला-

मुगल काल के चित्रों में बाबर के शासनकाल के दौरान कुछ भी विकास देखने को नहीं मिलता है, क्योंकि बाबर का शासन काल बहुत अल्पकालिक था।

बिहजाद, बाबर के समय का महत्त्वपूर्ण चित्रकार था बिहजाद को ‘पूर्व का राफेल’ कहा जाता है।

तैमूरी चित्रकला शैली को चरमोत्कर्ष पर ले जाने का श्रेय बिहजाद को जाता है।

हुमायूँ काल में मुगल चित्रकला-

हुमायूँ ने अफग़ानिस्तान के अपने निर्वासन के दौरान मुगल चित्रकला की नींव रखी। फारस में ही हुमायूँ की मुलाकात मीर सैय्यद अली एवं ख्वाज़ा अब्दुस्समद से हुई जिन्होंने मुगल चित्रकला का शुभारंभ किया।

मीर सैय्यद अली हेरात के प्रसिद्ध चित्रकार बिहजाद का शिष्य था। मीर सैय्यद ने जो कृतियाँ तैयार की उसमें से कुछ जहाँगीर द्वारा तैयार की गई गुलशन चित्रावली में संकलित है।

हुमायूँ ने इन दोनों को दास्ताने-अमीर-हम्ज़ा (हम्ज़ानामा) की चित्रकारी का कार्य सौंपा।

हम्ज़ानामा मुगल चित्रशाला की प्रथम महत्त्वपूर्ण कृति है। यह पैगंबर के चाचा अमीर हम्ज़ा के वीरतापूर्ण कारनामों का चित्रणीय संग्रह है। इसमें कुल 1200 चित्रों का संग्रह है।

मुल्ला अलाउद्दीन कजवीनी ने अपने ग्रंथ ‘नफाई-सुल-मासिरे में हम्ज़ानामा को हुमायूँ के मस्तिष्क की उपज बताया।

अकबर के काल में मुगल चित्रकला-

अकबर के समय के प्रमुख चित्रकार मीर सैय्यद अली, दसवंत, बसावन, ख्वाज़ा, अब्दुस्समद, मुकुंद आदि थे। आइने अकबरी में कुल 17 चित्रकारों का उल्लेख है।

मुगल काल के चित्रों ने अकबर के शासन काल में विकास में बड़े पैमाने का अनुभव किया। चूँकि अकबर महाकाव्यों, कथाओं में रुचि रखता था इसलिए उसके काल के चित्र रामायण, महाभारत और फारसी महाकाव्य पर आधारित है।

अकबर द्वारा शुरू की गई सबसे प्रारंभिक पेंटिंग परियोजनाओं में से तूतीनामा महत्त्वपूर्ण थी। यह 52 भागों में विभाजित थी।

दसवंत द्वारा बनाए गए चित्र रज़्मनामा नामक पांडुलिपि में मिलते हैं। अब्दुस्समद के राजदरबारी पुत्र मोहम्मद शरीफ ने रज़्मनामा के चित्रण कार्य का पर्यवेक्षण किया था। इसकी दो अन्य कृतियाँ हैं- ‘खानदाने तैमुरिया’ एवं ‘तूतीनामा’। रज़्मनामा पांडुलिपि को मुगल चित्रकला के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है। 

अकबर के समय में पहली बार ‘भित्ति चित्रकारी’ की शुरुआत हुई।

बसावन, अकबर के समय का सर्वोत्कृष्ट चित्रकार था। वह चित्रकला में सभी क्षेत्रों, रंगों का प्रयोग, रेखांकन, छवि चित्रकारी तथा भू-दृश्यों के चित्रण का सिद्धहस्त था। उसकी सर्वोत्कृष्ट कृति है- एक मृतकाय (दुबले-पतले) घोड़े के साथ एक मजनू का निर्जन क्षेत्र में भटकता हुआ चित्र।

अकबर के काल में पुर्तगाली पादरियों द्वारा राजदरबार में यूरोपीय चित्रकला भी आरंभ हुई। उससे प्रभावित होकर वह विशेष शैली अपनाई गई जिसमें चित्रों में करीब तथा दूरी का स्पष्ट बोध होता था।

अकबर ने चित्रकार दसवंत को साम्राज्य का अग्रणी कलाकार घोषित किया था।

अकबरकालीन चित्रकला में नीला, लाल, पीला, हरा, गुलाबी और सिंदूरी रंगों का इस्तेमाल हुआ। सुनहरे रंग का भी प्रचुरता से प्रयोग किया गया।

इस काल में राजपूत चित्रकला का प्रभाव भी दिखाई देता है।

जहाँगीर काल में चित्रकला-

मुगल सम्राट जहाँगीर के समय में चित्रकारी अपने चरमोत्कर्ष पर थी। उसने ‘हेरात’ के ‘आगारज़ा’ नेतृत्त्व में आगरा में एक ‘चित्रशाला’ की स्थापना की।

जहाँगीर ने हस्तलिखित ग्रंथों के विषयवस्तु को चित्रकारी करने की पद्धति को समाप्त किया और इसके स्थान पर छवि चित्रों,प्राकृतिक दृश्यों की पद्धति को अपनाया।

जहाँगीर के समय के प्रमुख चित्रकारों में ‘फारुख बेग’, ‘दौलत’, ‘मनोहर’, ‘बिसनदास’, ‘मंसूर’ एवं अबुल हसन थे। ‘फारुख बेग’ ने बीजापुर के शासक सुल्तान ‘आदिल शाह’ का चित्र बनाया था।

जहाँगीर चित्रकला का बड़ा कुशल पारखी था। जहाँगीर के समय को ‘चित्रकला का स्वर्ण काल’ कहा जाता है।

मुगल शैली में मनुष्य को चित्र बनाते समय एक ही चित्र में विभिन्न चित्रकारों द्वारा मुख, शरीर तथा पैरों को चित्रित करने का रिवाज था। जहाँगीर का दावा था कि वह किसी चित्र में विभिन्न चित्रकारों के अलग-अलग योगदान को पहचान सकता है।

शिकार, युद्ध और राज दरबार के दृश्यों को चित्रित करने के अलावा जहाँगीर के काल में मनुष्यों तथा जानवरों में चित्र बनाने की कला में विशेष प्रगति हुई। इस क्षेत्र में ‘मंसूर’ का नाम प्रसिद्ध था। मनुष्यों के चित्र बनाने का भी प्रचलन था।

जहाँगीर के निर्देश पर चित्रकार चित्रकार ‘दौलत’ ने अपने साथ चित्रकार ‘बिसनदास’, ‘गोवर्धन’ एवं ‘अबुल हसन’ के चित्र एवं स्वयं अपना एक छवि चित्र बनवाया।

सम्राट जहाँगीर ने अपने समय के अग्रणी चित्रकार बिसनदास को फारस के शाह, उसके अमीरों के तथा उसके परिजनों के यथारूप छवि- चित्र बनाकर लाने के लिए फारस भेजा था। जहाँगीर के विश्वसनीय चित्रकार ‘मनोहर’ ने उस समय में कई छवि चित्रों का निर्माण किया।

जहाँगीर के समय में चित्रकारों ने सम्राट के दरबार, हाथी पर बैठकर धनुष-बाण के साथ शिकार का पीछा करना, जुलूस, युद्ध स्थल एवं प्राकृतिक दृश्य, फूल, पौधे, पशु-पक्षी, घोड़े, शेर, चीता आदि चित्रों को अपना विषय बनाया।

जहाँगीर के समय भी चित्रकारी के क्षेत्र में घटी महत्त्वपूर्ण घटना थी-  मुगल  चित्रकला की फारसी प्रभाव से मुक्ति। पर्सी ब्राउन के अनुसार, जहाँगीर के समय मुगल चित्रकला की वास्तविक आत्मा लुप्त हो गई। इस समय चित्रकला में भारतीय पद्धति का विकास हुआ। यूरोपीय प्रभाव जो अकबर के समय से चित्रकला प्रारंभ हुआ था वह अभी भी जारी रहा।

अबुल हसन ने ‘तुजुके जहाँगीर’ में मुख्य पृष्ठ के लिए चित्र बनाया था। ‘उस्ताद मंसूर’ एवं अबुल हसन जहाँगीर के श्रेष्ठ कलाकारों में से थे। उन्हें बादशाह ने क्रमशः ‘नादिर-उल-अस्र’ एवं ‘नादिरुज्जमा’’ की उपाधि प्रदान की थी।

उस्ताद मंसूर दुर्लभ पशुओं, विरले पक्षियों एवं अनोखे पुष्पों आदि के चित्रों को बनाने के चित्रकार थे। उसकी महत्त्वपूर्ण कृति में ‘साइबेरियन सारस’ एवं बंगाल का एक पुष्प है। उस्ताद मंसूर पक्षी चित्र विशेषज्ञ तथा अबुल हसन व्यक्ति चित्र विशेषज्ञ था। यूरोपीय प्रभाव वाले चित्रकारों में ‘मिश्किन’ सर्वश्रेष्ठ था।

इस काल में एक छोटे आकार के चित्र बनाने की परंपरा शुरू हुई जिसे पगड़ी पर लगाया जा सके या गले में पहना जा सके। छवि चित्रों के प्रचलन के साथ-साथ चित्रकला में मुरक्कें शैली (एलबम) तथा अलंकृत हशियें का विकास हुआ।

ईरान के शाह अब्बास का स्वागत करते जहाँगीर, दर्जिन मेरी का चित्र पकड़े हुए जहाँगीर, मलिक अंबर के कटे सिर को लात मारते हुए जहाँगीर, आदि जहाँगीर कालीन प्रमुख चित्र थे।

शाहजहाँ के काल में चित्रकला-

शाहजहाँ के समय में आकृति-चित्रण और रंग सामंजस्य में कमी आ गई थी। उसके काल में रेखांकन और बॉर्डर बनाने की उन्नति हुई।

शाहजहाँ को देवी प्रतीकों वाली अपनी तस्वीर बनाने का शौक था जैसे- उसके सिर के पीछे रोशनी का गोला।

प्रमुख चित्रकार:- अनूप, मीर हासिम, मुहम्मद फकीर उल्ला, हुनर मुहम्मद नादिर, चिंतामणि।

शाहजहाँ का एक विख्यात चित्र भारतीय संग्रहालय में उपलब्ध है, जिसमें शाहजहाँ को सूफी नृत्य करते हुए दिखाया गया है।

इस काल के चित्रों के विशेष विषयों में यवन सुंदरियाँ, रंग महल, विलासी जीवन और ईसाई धर्म शामिल हुए। स्याह कलम चित्र बने, जिन्हें कागज की फिटकरी और सरेस आदि के मिश्रण से तैयार किया जाता था। इनकी खासियत बारीकियों का चित्रण था जैसे- दाढ़ी का एक-एक बाल दिखाना, रंगों को हल्की घुलन के साथ लगाना।

शाहजहाँ के जो भी चित्र बने उन सब में प्रायः उसे सर्वोत्तम वस्त्र और आभूषण धारण किए चित्रित किया गया।

इस दौर के एकल छवि चित्रों में यह विशेषता देखने में आती है कि गहराई और संपूर्ण दृश्य विधान प्रकट करने के लिये चित्रों की पृष्ठभूमि में दूर दिखाई देने वाला धुंधला नगर दृश्य हल्के रंगों में चित्रित किया गया।

गुलिस्ताँ तथा सादी का बुस्तान, दरबारियों के बीच ऊँचे आसन पर विराजमान शाहजहाँ, पिता जहाँगीर और दादा अकबर की संगति में शाहजहाँ, जिसमें अकबर ताज शाहजहाँ को सौंप रहा है आदि शाहजहाँ कालीन प्रमुख चित्र है।

औरंगजेब कालीन चित्रकला

औरंगजेब ने चित्रकला को इस्लाम के विरुद्ध मानकर बंद करवा दिया था। किंतु उसके शासन काल के अंतिम वर्षों में उसने चित्रकारी में कुछ रूचि ली जिसके परिणाम स्वरूप उसके कुछ लघु चित्र शिकार खेलते हुए, दरबार लगाते हुए तथा युद्ध करते हुए प्राप्त होते हैं।

औरंगजेब के के बाद चित्रकार अन्यत्र जाकर बस गए जहाँ अनेक क्षेत्रीय चित्रकला शैलियों का विकास हुआ।

मनूची ने लिखा है कि “औरंगजेब की आज्ञा से अकबर के मकबरे वाले चित्रों को चूने से पोत दिया गया था।”

मुगल चित्रकला की विशेषताएँ

मुग़ल शैली के चित्रों के विषय- दरबारी शानो-शौकत, बादशाह की  रुचियाँ आदि रहे।

प्रकृति के घनिष्ठ अवलोकन और उत्तम तथा कोमल आरेखण पर आधारित सुरम्य प्रकृतिवाद मुगल शैली की एक विशेषता है। यह सौंदर्य के गुणों से परिपूर्ण है।

मुगल चित्रकला में अधिक महीन काम किया गया है। महीन एवं नुकीली तूलिका से बहुत बारीक रेखा खींचने का अद्भुत कौशल यहाँ देखने को मिलता है। इसके अलावा अलंकरण पर भी बहुत बारीक काम किया गया। यहाँ तक कि कपड़ों की बेल-बूटे-भवनों की नक्काशी और फर्श की कारीगरी पर भी विशेष ध्यान दिया गया है।

इस काल के अधिकतर चित्र कागज पर बनाए गए हैं। इसके अलावा कपड़े, भित्ति और हाथी दाँत पर भी चित्र बनाए गए हैं।

चित्रकारों ने संध्या और रात्रि के चित्रांकन में भी रूचि ली है। ऐसे चित्रों में चाँदी और स्वर्ण रंग भरे गए हैं।

मुगल काल में एक चश्मी चेहरे के अंकन की एक सामान्य परिपाटी का पालन किया गया।

मुगल शैली का रंग विधान प्रचलित भारतीय परंपरा और ईरानी परंपरा से भिन्नता रखता है। इस शैली में लाजवर्दी और सुनहरे रंग का इस्तेमाल किया गया है।  इन रंगों को बनाने में विशेष कौशल भी दिखता है। कूची या ब्रश को प्रायः गिलहरी के बालों से बनाया गया है।

निष्कर्ष

अतः हम कह सकते हैं कि चित्रकारी के क्षेत्र में मुगलों ने विशिष्ट योगदान दिया। उन्होंने चित्रकारी की ऐसी जीवंत परंपरा का सूत्रपात किया जो मुगलों के अवसान के बाद भी दीर्घकाल तक देश के विभिन्न भागों में कायम रही।

Wednesday, 13 October 2021

तुर्की सुल्ताना का महल जिसे मुगल कालीन स्थापत्य कला का रत्न कहा जाता है

मुगल कालीन स्थापत्यकला का रत्न फतेहपुर सीकरी में स्थित तुर्की सुल्ताना के महल को कहा जाता है जिसे अकबर के शासन काल मे बनाया गया था  फतेहपुर सीकरी रेलवे स्टेशन से 1 किमी की दूरी पर, तुर्की सुल्ताना का महल फतेहपुर सीकरी किले के परिसर के अंदर अनूप तलाव के उत्तर-पूर्व कोने में स्थित है। इसे अनूप तलाव मंडप भी कहा जाता है। लाल बलुआ पत्थर से निर्मित, महल के बाहरी और आंतरिक भाग को नक्काशी के साथ खूबसूरती से सजाया गया है और इसके दोनों तरफ एक बालकनी है। ऐसा माना जाता है कि यह इमारत अकबर की दो तुर्की रानियों का घर था, जिन्हें सलीमा सुल्तान बेगम और रुकय्या बेगम कहा जाता था। यह संभवतः तालाब से जुड़ी तुर्की रानियों द्वारा एक आनंद मंडप के रूप में उपयोग किया जाता था। यह एक वर्गाकार इमारत है, जो पुष्प और ज्यामितीय पैटर्न में उकेरी गई है। मुख्य कक्ष हरम परिसर की समृद्ध अलंकृत संरचनाओं में से एक है। संरचना में बड़े पैमाने पर नक्काशीदार पैनल, पायलट, कॉलम, फ्रिज़ और ब्रैकेट शामिल हैं। यह एक बरामदे के माध्यम से ख्वाबगाह परिसर के भूतल से जुड़ा हुआ है और इसके पश्चिम में एक पोर्टिको है। बरामदे और पोर्टिको दोनों में जाली के काम के साथ पत्थर के पर्दे हैं। प्रवेश शुल्क: भारतीयों के लिए 20 रुपये और विदेशियों के लिए 260 रुपये। समय: सुबह 7 बजे से शाम 6 बजे तक। शुक्रवार को बंद रहा।

Monday, 11 October 2021

राजा किशोर सिंह लोधी दमोह

राजा किशोर सिंह लोधी 1857 की क्रांति के सूत्रधार रहे सन 1857 में देश को आजादी दिलाने में हिंडोरियाके राजा किशोर सिंह लोधी ने अंग्रेजी सेना से अपनी वीरता का लोहा मनवाया था और अपने प्राणों का बलिदान देकर मातृभूमि की रक्षा की। सेनानी क्रांति के सूत्रधार नायक हिंडोरिया रियासत के राजा किशोर सिंह लोधी थे, जिन्होंने ने अंग्रेजी सेना का विद्रोह करते हुए अपनी वीरता से अंग्रेजी सेना को नाकों चने चबाने को मजबूर कर दिया था।

दमोह जिले में हिंडोरिया में सन 1980 तक प्रदेश का सबसे बड़ा ग्राम था। वर्तमान यह नगरीय क्षेत्र है जहां के राजा किशोर सिंह लोधी की अगुवाई में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। इस स्वतंत्रता संग्राम में दमोह के क्रांतिकारी भी अछूते नहीं थे। जिन्होंने किशोर सिंह लोधी के नेतृत्व में स्वाधीनता के लिए जंग छेड़ दी। उस समय सागर कमिश्नरी के रूप में हिंडोरिया जागीर के रूप में जानी जाती थी। अंग्रेजों की राज्य हड़प नीति के तहत 70 गांव की हिंडोरिया रियासत पर भी अपना कब्जा करना चाहते थे। इसलिए हिंडोरिया पर अंग्रेजों की सेना के द्वारा तोपों से हमला किया गया।

आज भी बने हैं तोप के निशान

इस हमला से क्षतिग्रस्त हिण्डोरिया गढ़ पर तोपों की मार के निशान आज भी बने हुए हैं। यहां पर पहाड़ी पर स्थित किला किशोर सिंह के पूर्वजों के द्वारा बनवाया गया था। इन्हीं के पूर्वज ठा. बुद्घ सिंह ने राजा छत्रसाल के समय में हिंडोरिया जागीर बसाई थी। जुलाई 1857 में कमिश्नर सागर के द्वारा अपने मुंशी मोहम्मद अलीमुद्दीन के हाथ किशोर सिंह को पत्र के माध्यम से संदेश दिया गया कि आप अंग्रेजी हुकूमत से बगावत का रास्ता छोड़ दें तो क्षतिपूर्ति का सारा का सारा खर्च खजाने से भरपाई कर दी जाएगी और पुरानी जागीरें भी वापिस कर दी जाएंगी। लेकिन ठाकुर किशोर सिंह लोधी की अपनी मातृभूमि के प्रति अटल श्रद्घा कम नहीं हुई और मातृभूमि पर से फिरंगियों को खदेडऩे तक युद्घ जारी रखने की मन ठान ली।

दमोह थाना को अंग्रेजी कब्जा से कराया था मुक्त

10 जुलाई को किशोर सिंह लोधी , राव साहब लोधी स्वरूप सिंह लोधी ने अपने सभी साथियों के साथ दमोह पर अंग्रेजी सेना पर धावा बोलकर दमोह थाना को अंग्रेजी सेना से मुक्त करवाकर अपना कब्जा कर लिया। जिसमें अंग्रेजी शासन का पूर्व का रिकार्ड जला दिया। जिससे खौफजदा अंग्रेजी हुकूमत ने भारी सेना-बल भेज दिया। इसके बाद भी किशोर सिंह ने अनेकों साथियों साथ अनेक ग्रामों व कुम्हारी थाना पर अपना कब्जा कर लिया और फिरंगी सेना को हर वार हार का सामना करना पड़ा।

जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर इनाम किया था घोषित

राजा किशोर सिंह लोधी के वंशज प्रद्युम्न सिंह लोधी अंग्रेजी सेना अपने मंसूबों पर पानी फिरता देख 20 जुलाई को लिखे गए पत्रों से अंदाजा लगाया जा सकता है। जिसमें लिखा है कि राजा किशोर सिंह लोधी को पकड़कर दंड देना जरूरी है। इसी के चलते अंग्रेज कमिश्नर ने दमोह के डिप्टी कमिश्नर को लिखा था कि आप हिंडोरिया कूच करके हिंडोरिया रियासत को जमीदोंज कर दें। साथ राजा किशोर सिंह लोधी को पकड़कर फांसी पर लटका दिया जाए। इसी दौरान अमर सेनानी राजा किशोर सिंह लोधी को जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर एक हजार का ईनाम घोषित किया था, लेकिन अंग्रेजी सेना इन्हें पकड़ नहीं पाई थी। जिसके बाद अंग्रेजी सेना द्वारा इनकी रियासत पर कब्जा कर लिया गया था। इसके बाद राजा किशोर सिंह लोधी चार माह तक कुम्हारी में रहते हुए अंग्रेजी सेना से विद्रोह करते रहे। बाद में उनका कोई पता नहीं चला। लेकिन अमर सेनानी की याद आज भी दमोह के क्रांतिकारियों में महानायक के रूप में की जाती है। राजपूत,ठाकुर,लोधी,चौहान,राठौर,तोमर।

एक जिला एक उत्पाद जिला बुरहानपुर केला के लिए चुना गया

मध्यप्रदेश जिला बुराहनपुर एक जिला एक उत्पाद के अंतर्गत केले की फसल और प्रसंस्करण के लिए चुना गया है                            बुरहानपुर (Burhanpur) भारत के मध्य प्रदेश राज्य के बुरहानपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय/ केंंद्र भी है और ताप्ती नदी के किनारे बसा हुआ है।[1][2]

बुरहानपुर

मध्य प्रदेश में स्थिति

निर्देशांक: 21°10′N 76°10′E / 21.17°N 76.17°Eज़िलाबुरहानपुर ज़िलाप्रान्तमध्य प्रदेशदेश भारतस्थापना1380शासन • महापौरअनिल भाऊ भोसलेऊँचाई247 मी (810 फीट)जनसंख्या (2011) • कुल2,10,891भाषाएँ • प्रचलितहिन्दीसमय मण्डलभारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30)पिनकोड450331दूरभाष कोड(+91) 7325आई॰एस॰ओ॰ ३१६६ कोडIN-MPवाहन पंजीकरणMP-68वेबसाइटwww.burhanpur.nic.in

इतिहाससंपादित करें

यह खानदेश की राजधानी था। इसको चौदहवीं शताब्दी में खानदेश के फ़ारूक़ी वंश के सुल्तान मलिक अहमद के पुत्र नसीर द्वारा बसाया गया। अकबर ने 1599 ई. में बुरहानपुर पर अधिकार कर लिया। अकबर ने 1601 ई. में ख़ानदेश को मुग़ल साम्राज्य में शामिल कर लिया। शाहजहाँ की प्रिय बेगम मुमताज़ की सन 1631 ई. में यहीं मृत्यु हुई। मराठों ने बुरहानपुर को अनेक बार लूटा और बाद में इस प्रांत से चौथ वसूल करने का अधिकार भी मुग़ल साम्राट से प्राप्त कर लिया। बुरहानपुर कई वर्षों तक मुग़लों और मराठों की झड़पों का गवाह रहा और इसे बाद में आर्थर वेलेजली ने सन 1803 ई. में जीता। सन 1805 ई. में इसे सिंधिया को वापस कर दिया और 1861 ई. में यह ब्रिटिश सत्ता को हस्तांतरित हो गया।

मुख्य केन्द्रसंपादित करें

शेरशाह के समय बुरहानपुर की सड़क का मार्ग सीधा आगरा से जुड़ा हुआ था। दक्षिण जाने वाली सेनायें बुरहानपुर होकर जाती थी। अकबर के समय बुरहानपुर एक बड़ा, समृद्ध एवं जन-संकुल नगर था। बुरहानपुर सूती कपड़ा बनाने वाला एक मुख्य केन्द्र था। आगरा और सूरत के बीच सारा यातायात बुरहानपुर होकर जाता था। बुरहानपुर में ही मुग़ल युग की अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना द्वारा बनवाई गई प्रसिद्ध 'अकबरी सराय' भी है

स्थापत्य कलासंपादित करें

बुरहानपुर में अनेकों स्थापत्य कला की इमारतें आज भी अपने सुन्दर वैभव के लिए जानी जाती हैं। इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।

अकबरी सरायसंपादित करें

बुरहानपुर के मोहल्ला क़िला अंडा बाज़ार की ताना गुजरी मस्जिद के उत्तर में मुग़ल युग की प्रसिद्ध यादगार अकबरी सराय है। जिसे अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना ने बनवाया था। उस समय ख़ानख़ाना सूबा ख़ानदेश के सूबेदार थे। बादशाह जहांगीर का शासन था और निर्माण उन्हीं के आदेश से हुआ था। बादशाह जहांगीर के शासन काल में इंग्लैंड के बादशाह जेम्स प्रथम का राजदूत सर टॉमस रॉ यहाँ आया था। वह इसी सराय में ठहरा था। उस समय शहज़ादा परवेज़ और उसका पिता जहांगीर शाही क़िले में मौजूद थे।

महल गुलआरासंपादित करें

महल गुलआरा बुरहानपुर से लगभग 21 किलोमीटर की दूरी पर, अमरावती रोड पर स्थित ग्राम सिंघखेड़ा से उत्तर की दिशा में है। फ़ारूक़ी बादशाहों ने पहाड़ी नदी बड़ी उतावली के रास्ते में लगभग 300 फुट लंबी एक सुदृढ दीवार बाँधकर पहाड़ी जल संग्रह कर सरोवर बनाया और जलप्रपात रूप में परिणित किया। जब शाहजहाँ अपने पिता जहाँगीर के कार्यकाल में शहर बुरहानपुर आया था, तब ही उसे 'गुलआरा' नाम की गायिका से प्रेम हो गया था। 'गुलआरा' अत्यंत सुंदर होने के साथ अच्छी गायिका भी थी। इस विशेषता से शाहजहाँ उस पर मुग्ध हुआ। वह उसे दिल-ओ-जान से चाहने लगा था। उसने विवाह कर उसे अपनी बेगम बनाया और उसे 'गुलआरा' की उपाधि प्रदान की थी। शाहजहाँ ने करारा गाँव में उतावली नदी के किनारे दो सुंदर महलों का निर्माण कराया और इस गांव के नाम को परिवर्तित कर बेगम के नाम से 'महल गुलआरा' कर दिया।

शाह नवाज़ ख़ाँ का मक़बरासंपादित करें

शाह नवाज़ ख़ाँ का मक़बरा, बुरहानपुर के उत्तर में 2 किलोमीटर के फासले पर उतावली नदी के किनारे काले पत्थर से निर्मित मुग़ल शासन काल का एक दर्शनीय भव्य मक़बरा है। बुरहानपुर में मुग़ल काल में निर्मित अन्य इमारतों में से इस इमारत का अपना विशेष स्थान है। शाह नवाज़ ख़ाँ का असली नाम 'इरज' था। इसका जन्म अहमदाबाद (गुजरात) में हुआ था। यह बुरहानपुर के सूबेदार अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना का ज्येष्ठ पुत्र था। यह मक़बरा इतने वर्ष बीत जाने के पश्चात भी अच्छी स्थिति में है। यह स्थान शहरवासियों के लिए सर्वोत्तम पर्यटन स्थल माना जाता है।

जामा मस्जिदसंपादित करें

बुरहानपुर दक्षिण भारत का प्राचीन नगर है, जिसे 'नासिरउद्दीन फ़ारूक़ी' बादशाह ने सन 1406 ई. में आबाद किया था। फ़ारूक़ी शासनकाल में अनेक इमारतें और मस्जिदें बनाई गई थीं। इनमें सबसे सर्वश्रेष्ठ इमारत जामा मस्जिद है, जो अपनी पायेदारी और सुंदरता की दृष्टि से सारे भारत में अपना विशेष स्थान एवं महत्व रखती है। यह मस्जिद निर्माण कला की दृष्टि से एक उत्तम उदाहरण है। प्राचीन काल में बुरहानपुर की अधिकतर आबादी उत्तर दिशा में थी। इसीलिए फ़ारूक़ी शासनकाल में बादशाह 'आजम हुमायूं' की बेगम 'रूकैया' ने 936 हिजरी सन 1529 ई. में मोहल्ला इतवारा में एक मस्जिद बनवायी थी, जिसे बीबी की मस्जिद कहते हैं। यह शहर बुरहानपुर की पहली जामा मस्जिद थी। धीरे-धीरे शहर की आबादी में विस्तार होता गया। लोग चारों तरफ़ बसने लगे, तो यह मस्जिद शहर से एक तरफ़ पड गई, जिससे जुमा शुक्रवार की नमाज़ पढने के लिये लोगों को परेशानी होने लगी थी।

असीरगढ़संपादित करें

असीरगढ़ का किला बुरहानपुर से 22 किमी और खण्डवा से 48 किमी दूरी प‍र खण्‍डवा-बुरहानपुर रोड पर स्थित है। आधार से इस किले की उचाई 259.1 मीटर तथा औसत समुद्र तल से 701 मीटर है। इसे दक्षिण की कुंजी, दक्षिण का द्वार या दक्‍खन का दरवाजा भी कहा जाता है क्योंकि मध्‍यकाल में इस दुर्गम एवं अभेद्य किले को जीते बिना दक्षिण भारत में कोई शक्ति प्रवेश नहीं कर सकती थी। इस किले को तीन अलग अलग स्‍तर पर बनाया गया है। सबसे ऊपर वाला परकोटा असीरगढ़ कहलाता हैं एवं अन्‍य परकोटे कमरगढ़ और मलयगढ़ कहलाते हैं। किले के अंदर जामी मस्जिद, शिव को समर्पित मंदिर और अन्‍य रचनाऐं है। किले के पास में तलहटी में आशादेवी का सुप्रसिद्ध मंदिर है। असीरगढ गांव के पास ही सुफी संत शाह नोमानी असिरी का मकबरा, किले के वाम भाग में पण्‍ढार नदी के किनारे पर शाहजहॉं की प्रिय मोती बेगम का मकबरा है, जिसे मोती महल नाम से जाना जाता है। मोती बेगम का मकबरा आज भी मोती महल में खस्ता हाल में है,जो सरकार कि अनदेखी के कारण लावारिश अवस्था मे है। वैसे यह किला बहुत ही पौराणिक है अनेक कथाएं और मान्यताएं इसके इर्दगिर्द घूमती रहती है। पुराने समय से यानी जब गुर्जर प्रतिहार राजवंश के मालवा तक राज्य था तब शायद राजा मिहिरकुल द्वारा यह किला बनाया जाने का इतिहास कही कही मिलता है। गुर्जर प्रतिहार राजवंश का पतन होने के बाद मुसलमानो के आक्रांताओं के आक्रमण से बचने के लिए यहां के स्थानिक गुर्जर खुद को गुर्जर की बजाय राजपूत कहने लगे जो चौहान गोत्र के गुर्जर थे. आज भी जब हम आशापुरा या आशा देवी की मंदिर में जाते हैं तो वहाँ जो पुजारी हैं, जिनकी उमर 90 साल के लगभग है, वह बताते है कि असल में हम गुर्जर ही है, लेकिन अब खुद को राजपूत बोलते हुए सादिया हो गयी इसलिए अब हम राजपूत ही हो गए. गुर्जरात्रा, जिसका नाम इसलिए गुर्जरात्रा पड़ा क्योंकि उसपर गुर्जरों का अखंड साम्राज्य रहा, यानी आज का गुजरात के सौराष्ट्र में स्थित सोमनाथ का पतन होने के बाद यानी वहा पर जब मुस्लिम आक्रांताओं ने बर्बरतापूर्वक शासन लागू करने के बाद, सोमनाथ के साथ गुर्जरों का भी पतन हुआ, उसके बाद गुर्जर लड़ाकों ने खंबायत की आखात का रुख किया और कुछ भागकर तापी नदी के किनारे किनारे महाराष्ट्र में आ गये. जो लड़ाके थे उन्होंने अपना राज्य पुनर्स्थापित करने के लिए खंबायत का रुख किया और वह उसमे वह अछि तरह से कामयाब भी हुए और उन्होंने गुजरात के खंबायत से लेकर जबलपुर और भेड़ा घाट तक अपना साम्राज्य स्थापित किया और ऐसा कहा जाता है कि इसको करने के लिए गुर्जर विरो को कम से कम 60 साल का समय लगा. मां नर्मदा का एक नाम रेवा है इसलिए यह रेवा गुर्जर कहलाए. गुर्जर प्रतिहार के पतन के बाद फिर एक बार गुर्जरों ने अपनी सत्ता को नर्मदा नदी के किनारों पर स्थापित किया तो गुर्जरों को खंबायत से जबलपुर तक के लंबाई में बसे अपने राज्य की चौड़ाई बढाने की आवश्यकता पड़ी और इसका कारण भी यह रहा कि मुस्लिम आक्रांताओं की वजह से अपनी पहचान छुपाया हुआ और खुद को गुर्जर की बजाय राजपूत कहलेने वाले चौहान गुर्जर रेवा गुर्जरों को आकर मिले और रेवा गुर्जर और चौहान गुर्जर इनकी एक बड़ी शक्ति बन गयी. इन दोनों ने मिलकर एक साथ इस किले पर आक्रमण किया, कई महीनों तक यह संघर्ष चला आखरी में मुसलमानों को वहाँ से भाग जाना पड़ा और इस तरह आशिरगढ़ का किला एक बार फिर गुर्जरो के अधिनस्त हुआ. उसके बाद 100 सालो तक गुर्जर इस किले के सम्राट रहे और उन्होंने अपने राज्य की चौड़ाई नर्मदा से लेकर दक्षिण में विंध्याचल तक बढ़ा दी. आगे का इतिहास आशिरगढ़ से संबंधित न होने के कारण यही पर रुकता हु, जैसे भी और जानकारियां मिलती रहेगी हम उनको आपके सामने पेश करते जाएंगे.

यह किला सदियों तक रेवा गुर्जरों के अधिनस्त रहा जो

राजा की छतरीसंपादित करें

बुरहानपुर से 4 मील की दुरी पर ताप्‍ती के किनारे राजा की छतरी नाम का एक उल्‍लेखनीय स्‍मारक है। ऐसा कहा गया है कि मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेश से राजा जयसिंह के सम्‍मान में इस छतरी का निर्माण हुआ था। दक्‍खन में राजा जयसिंह मुगलसेना के सेनापति थे। दक्‍खन अभियान से लौटते समय बुरहानपुर में राजा जयसिंह की मृत्‍यु हो गई थी। कहा जाता है कि इस स्‍थान पर उनका दाह संस्‍कार किया गया था।

खूनी भण्‍डारासंपादित करें

शुद्ध जल प्रदाय करने की दृष्टि से मुगल शासकों ने आठ जल प्रदाय प्रणालियों का निर्माण करवाया था। जिनसे, विभिन्‍न समयों पर इस जन-समपन्‍न नगरी में काफी मात्रा में जल प्रदाय किया जाता था। ये निर्माणकला के अव्दितीय नमूने हैं और इनकी गणना अत्‍यंत व्‍ययसाध्‍य मुगल यांत्रिक कला की पटुता और कुशलता के शानदार अवशेषों में की जाती है। खूनी भंडारा या कुंडी भंडारा का निर्माण मुगल बादशाह अकबर के शासन काल में अब्दुर्रहीम खानखाना द्वारा कर वाया गया था। सतपुडा पहाडि़यों से ताप्‍ती नदी की ओर बहने वाले भू‍मिगत स्रोतों को तीन स्‍थानों पर रोका गया है, इन्‍हे मूल भण्‍डारा, सूखा भण्‍डारा और चिंताहरण जलाशय कहा जाता है। ये रेलवे लाइन के पार बुरहानपुर के उत्‍तर में कुछ ही किलोमीटर पर स्थित हैं और शहर की अपेक्षा लगभग 100 फुट ऊंची सतह पर हैं। भूमिगत जल वाहिनियों के इन आठ संघों में से नालियों के रूप में दो संघ बहुत पहले ही नष्‍ट कर दिए गए थे। अन्‍य छह संघों में कईं कुएं हैं जो भूमिगत गैलरियों से संबद्ध है और जो इस प्रकार निर्मित है कि पास की पहाडि़यों से जल का रिसना घाटी के मध्‍य की ओर खींचा जा सके। इस प्रकार पर्याप्‍त जल संग्रहित होने पर वह नगर में या उसके निकटवर्ती स्‍थानों में इष्‍ट स्‍थान तक चिनाई पाइप में ले जाया जाता था। एक संघ से, जो मूल भण्‍डारा कहलाता है, से महल और नगर के मध्‍य भाग में जलपूर्ति की जाती थी, जो कईं वायुकूपकों से युक्‍त लगभग 1300 सौ फुट सुरंग मार्ग ये जाता था। जल एक पक्‍के जलाशय, जो जाली करन्‍ज कहलाता है, में छोड़ा जाता था और यहां से मिट्टी के और तराशे गए पत्‍थर के पाइपों के जरिए पानी नगर में विभिन्‍न करंजों और वाटर टॉवरों में पहुंचाया जाता था। सूखा भण्‍डारा जल प्रदाय केंद्र मूलत: पान टाडो और लालबाग के अन्‍य बागों या मुगल सू‍बेदार के विलास के उद्यान की सिंचाई के लिए था। सन् 1880 में इसका पानी 3" मिट्टी की पाइप लाइन व्‍दारा तिरखुती करंज से जाली करंज तक नगर की ओर भी लाया गया। 1890 में खूनी भण्‍डारा और सूखा भण्‍डारा से पानी ले जाने वाले पाइपों के स्‍थान पर ढलवां लोहे की पाइप लाइन डाली गई। शेष जल प्रणालियों में से तीन बहादरपुर की ओर जो कि उस समय नगर का एक उपनगर था और छठवीं राव रतन हाड़ा व्‍दारा बनवाये गए महल की ओर ले जाई गई थी। इन जल प्रणालियों पर जहां वे भूमिगत हैं, थोडे़थोड़े अंतराल पर जल के स्‍तर से ऊपर की ओर पक्‍के पोले स्‍तंभ बनाए गए हैं। ऐसा ही स्‍तंभ जल प्रणाली के उद्गम पर है। 1922 से जल पूर्ति के स्रोत का प्रबंध नगरपालिका बुरहानपुर, जिसकी स्‍थापना 1867 में हुई थी, के पास आ गया।

शाही हमामसंपादित करें

यह स्‍मारक फारूखी किले के अंदर स्थित है यह मुग़ल बादशाह शाहजहॉं व्‍दारा बनवाया गया था स्‍मारक के बीचों बीच अष्‍टकोणीय स्‍नान कुण्‍ड है। यह स्‍नानकुण्‍ड खूनी भण्‍डारे की जल आपूर्ति प्रणाली से जुडा़ हुआ है। इस स्‍मारक की छतों पर रंगीन मुगल चित्रकला दर्शनीय है।

दरगाए-ए-हकी़मीसंपादित करें

दरगाह-ए-हकी़मी बुरहानपुर से 2 किलोमीटर दूरी पर लोधीपुरा ग्राम में स्थित है। क़ामिली सैय्यदी और मौला-ए-बावा अब्‍दुल का़दिर हकीम-उद्-दीन की स्‍मृति में बनायी गयी इस दरगाह की सुन्‍दरता और इसके आसपास की बाग बगीचे और साफ सफाई से गहन रूहानी सकून (आत्मिक शांति) की अनुभूति होती है और इन्‍सान की अल्‍लाह से नजदीकी का स्‍पष्‍ट अनुभव होता है। बोहरा सम्‍प्रदाय के हजारों तीर्थयात्री प्रतिवर्ष यहॉं आते हैं। अन्‍य मजारों में रोज़-ए-मुबारक और दा-एल-मुतल्‍लक सैय्यदना अब्‍दुल तैय्यब जैन-उद्-दीन साहेब और वली-उल मुर्तज सैय्यद शेख जीवनजी भी यहॉं स्थित है। मजार के पश्चिम में एक खुबसरत मस्जिद और हकी़मी बाग भी मौजूद है।

गुरुद्वारासंपादित करें

सिक्‍ख धर्म का महत्‍वपूर्ण तीर्थ स्‍थल में से एक, यहॉं का ऐतिहासिक गुरुद्वारा एक महत्‍वपूर्ण स्‍थल है। प्रथम गुरू नानक देव जी एवं अंतिम गुरूवार गुरू गोबिन्द सिंह जी महाराज के पवित्र चरण इस स्‍थल पर पडे़ हैं। ताप्‍ती किनारे राजघाट पर स्थित इस गुरूव्‍द़ारें में गुरू नानक देव जी महाराज आए थे। यहॉं रखे गए पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब पर गुरू नानक देव जी महाराज ने हस्‍ताक्षर भी किए थे। यहॉं गुरु गोबिन्द सिंह जी के अस्‍त्र शस्‍त्र एवं गुरू ग्रंथ साहब के दर्शन भी किए जा सकते हैं। यह गुरूव्‍दारा लगभग 400 वर्ष प्राचीन है और इसकी गणना आनन्दपुर(पंजाब), पटना(बिहार) और नांदेड़(महाराष्‍ट्र) के प्रमुख सिक्‍ख तीर्थस्‍थलों में की जाती है।

उद्योग व व्यवसायसंपादित करें

बुरहानपुर से आगरा को रूई भेजी जाती थी। अंग्रेज़ यात्री 'पीटर मुण्डी' ने इस नगर के बारे में लिखा है कि यहाँ सभी आवश्यक वस्तुओं का भण्डार था। यहाँ बड़े-बड़े 'काफ़िले' सामान लेकर पहुँचते रहते थे। बुरहानपुर में व्यापक पैमाने पर मलमल, सोने और चाँदी की जरी बनाने और लेस बुनने का व्यापार विकसित हुआ, जो 18वीं शताब्दी में मंदा पड़ गया, फिर भी लघु स्तर पर इन पर इन वस्तुओं का उत्पादन जारी रहा।

Monday, 4 October 2021

gurudwara data bandi chhod gwalior history story in hindi

GWALIOR किले पर स्थित गुरुद्वारे को दाता बंदी छोड़ क्यों कहते हैं - GK in Hindi


 gurudwara data bandi chhod history story in hindi

कहानी 400 साल पहले यानी सन 1600 की है। भारतवर्ष पर मुगलों का अधिकार था। ग्वालियर के किले को कारावास के रूप में उपयोग किया जाता है। उन दिनों मुगल तख्त पर बादशाह जहांगीर बैठा था। उसने 52 राजपूत राजाओं को ग्वालियर के किले में बंदी बनाकर रखा हुआ था। इसी दौरान सन 1619 में 6 वें सिख गुरु हरगोविंद सिंह को मुगल बादशाह जहांगीर ने गिरफ्तार करवा लिया और ग्वालियर के किले में राजपूत राजाओं के साथ बंद कर दिया। करीब 2 साल 3 महीने तक गुरु हरगोविंद सिंह ग्वालियर के किले में साधना करते रहे। 

Guru Hargobind Singh data Bandi Chhod story

सन 1621 में मुगल बादशाह जहांगीर की तबीयत खराब हो गई। उसके सपने में एक फकीर बार-बार गुरु हरगोविंद सिंह जी को रिहा करने के लिए कहता था। अंततः जहांगीर ने गुरु हरगोविंद सिंह जी को रिहा करने के आदेश दे दिए। जब रिहाई के आदेश ग्वालियर के किले पर पहुंचे तो गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने अकेले रिहा होना अस्वीकार कर दिया और अपने साथ सभी 52 राजपूत राजाओं की स्वतंत्रता की मांग की। 


Gwalior Fort history- The story of the arrest of 52 Rajput kings

मुगल बादशाह जहांगीर का मानना था कि 52 राजपूत राजाओं को एक साथ स्वतंत्र कर देने से उसकी सत्ता खतरे में पड़ सकती है लेकिन फकीर की बात भी नहीं डाल सकते इसलिए मुगल बादशाह ने सत्र की के जितने भी लोग गुरु हरगोबिंद सिंह जी का दामन थाम कर बाहर निकल सकते हैं उन सभी को स्वतंत्र कर दिया जाएगा। 

Story of Unity of Guru Hargobind Singh


गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने बड़ी ही चतुराई के साथ रिहाई के लिए नए वस्त्रों की मांग की। इसमें उन्होंने 52 कलियों वाला अंगरखा सिलवाया। और इस प्रकार एक-एक कली पकड़ कर सभी 52 राजपूत राजा स्वतंत्र हो गए। इसी प्रसंग की याद में ग्वालियर के किले में भव्य गुरुद्वारे का निर्माण किया गया है और गुरुद्वारे का नाम रखा गया है दाता बंदी छोड़। 

ग्वालियर के किले पर स्थित गुरुद्वारा कब बना था

सिखों के सेवादार देवेन्द्र सिंह ने बताया कि छटवें गुरु हरगोबिंद सिंह को 1600 ईस्वी में ग्वालियर किले पर बंदी बनाकर मुगल शासन काल में रखा गया था। सन 1621 में वह 52 राजाओं को लेकर रिहा हुए थे। वहीं से उनको दाता बंद छोड़ नाम मिला। उनके इस घटनाक्रम और किले पर बंदी रहने के स्मारक के तौर पर संत बाबा अमर सिंह के द्वारा सन 1968 में ग्वालियर किले पर गुरुद्वारे दाता बंदी छोड़ का निर्माण कराया गया। गुरुद्वारा में 100 किलो सोना लगा है। गुरुद्वारा की छत पर 25 फीट पर एक सोने का गुंबद है और चार 14-14 फीट के गुंबद हैं।